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भूतनाथ-खण्ड-5/ भाग-14

05:00 PM Aug 25, 2022 IST | sahnawaj
भूतनाथ खण्ड 5  भाग 14
bhootnath by devkinandan khatri
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देखते-ही-देखते भैया राजा और भूतनाथ को कई दुश्मनों ने आकर घेर लिया और उन पर वार करना शुरू किया। मगर वाह रे भूतनाथ! जिस तरफ तलवार घुमाता हुआ टूट पड़ता था उस तरफ दुश्मनों के दिल भी टूट जाते थे। यद्यपि भूतनाथ के बदन पर कई जख्म लगे परन्तु पाँच आदमियों को उसने बेकार कर जमीन पर सुला दिया। भैया राजा की तो बात ही न्यारी थी, उनकी तिलिस्मी तलवार की बदौलत जो दुश्मन उनके सामने आया वही जख्मी और बेहोश होकर जमीन पर जा रहा और किसी को तनोबदन की खबर न रही, मगर भैया राजा का भी बदन जख्मी होने से बचा न रहा।

अब पुन: उस मैदान में केवल भूतनाथ और भैया राजा दिखाई देने लगे। यद्यपि इस समय उन्होंने अपने दुश्मनों पर फतह पाई थी मगर इन दोनों का शरीर भी थकावट से चूर-चूर हो रहा था। एक तो सफर की हरारत दूसरे दुश्मनों से लड़ाई होने के कारण ये दोनों ऐसा थक गए कि अब तलवार क्या हाथ हिलाना कठिन-सा हो गया था, साथ ही इसके दिल में दुश्मनों की तरफ से बेफिक्री भी नहीं होती थी, यह सोचते थे कि शायद और दुश्मनों का सामना हो जाय तो मुश्किल होगी क्योंकि अब रात हो गई है जिसके कारण दुश्मनों का वार बचाना और कठिन हो जाएगा।

भैया राजा और भूतनाथ दोनों आदमी एक पेड़ के नीचे बैठ गए और तरह-तरह की बातें सोचने लगे।

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भैया राजा : भूतनाथ, मैं इस समय तुमसे पुन: एक सवाल किया चाहता हूँ।

भूतनाथ : कहिए

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भैया राजा : तुम ठहरे दारोगा साहब के दोस्त, चाहे वह दोस्ती जाहिरदारी और खुदगरजी ही के साथ क्यों न हो, मगर मैं हूँ दारोगा साहब का दुश्मन क्योंकि उसने मुझे मार डालने में किसी तरह की कसर नहीं उठा रखी थी और इस बात को तुम भी जानते हो क्योंकि उसके सहायक ही थे, या यों भी कह सकते हैं कि तुम्हारी ही मदद करते हुए दारोगा को मेरे साथ दुश्मनी करने की जरूरत आ पड़ी…

भूतनाथ : (बात काट कर) अब आप कृपा कर इन सब शर्मिन्दा करने वाली बातों को जाने दीजिए, मैंने जो कुछ किया वह आपसे छिपा नहीं है। मैं खुद कह चुका हूँ कि मुझ-सा पापी और पतित इस दुनिया में कोई दूसरा न होगा। भविष्यत् के लिए अपना रास्ता बदलने की कसम खाता हुआ मैं आपसे माफी माँग चुका हूँ और आपने मुझे माफी देकर अपना बना लिया है, अस्तु अब पुन: जब तक आप मुझे पाप करते हुए न देखें या सुनें तब तक आपको ऐसी बात…

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भैया राजा : (बात काटते हुए) नहीं-नहीं भूतनाथ, मेरे इस कहने का यह मतलब नहीं है कि तुम्हें उन सब बातों की याद दिलाकर शर्मिन्दा करूँ, तुम मेरी बात तो पूरी तरह सुन लो! मैं कहता हूँ कि तुम अभी दारोगा से दोस्ती रखा चाहते हो और मैं उससे बदला लेने की फिक्र में हूँ, ऐसी अवस्था में अगर ऐसे समय दारोगा से मुलाकात हो जाय तो तुम उसके साथ कैसा सलूक करोगे? क्योंकि ताज्जुब नहीं कि यह कार्रवाई दारोगा की तरफ से की गई हो, यह सब उसी के आदमी हों, और यहाँ खुद उससे भी मुलाकात हो जाय, मेरा दिल घड़ी-घड़ी इन्हीं बातों की तरफ से ढुलकता है।

भूतनाथ : जमना और सरस्वती के विषय में नि:सन्देह दारोगा ने मेरी मदद की थी जिसके लिए मुझे उसका शुक्रगुजार होना चाहिए था मगर अब जबकि मैंने अपना रास्ता बदल दिया तो अपने पहिले के पापकर्म में साथ रहने वाली पापी साथियों के साथ भाईचारे का बर्ताव नहीं कर सकता। यद्यपि किसी कारण से मैं उसके साथ जाहिरदारी का बर्ताव कर रहा हूँ सही, मगर अब तो मुझे उसकी भी जरूर न रही क्योंकि अब न तो मुझे जमना, सरस्वती इत्यादि के साथ दुश्मनी करनी है और न उससे कुछ काम लेने की जरूरत ही जान पड़ती है, मैंने तो अब अपने को दयामय परमात्मा के भरोसे छोड़ दिया है और आपकी शरण में आ गया हूँ, जो कुछ होनी हो सो हो,मैं आपका ताबेदार हूँ, आप जो आज्ञा देंगे वही करूँगा।

भैया राजा : खैर तुम्हारी तरफ से दिलजमई तो हो ही चुकी थी अब पुन: हो गई मगर अफसोस यह है कि इन्द्रदेव ने हजार दुखी होने पर भी अभी तक दारोगा के साथ कोई खोटा बर्ताव नहीं किया। मैं इन्द्रदेव के विरुद्ध कोई काम न करूँगा।

भूतनाथ : बेशक् ऐसा ही है, मुझे भी इन्द्रदेव का खयाल है और साथ ही इसके दारोगा की जात से दयाराम का पताल गाना भी जरूरी है।

भैया राजा : (चौंक कर) वह देखो सामने से रोशनी कैसी आ रही है?

भूतनाथ : कोई आदमी लालटेन लिए हुए इसी तरफ आ रहा है।

भैया राजा : क्या इसे अपना दुश्मन समझें?

भूतनाथ : ऐसे मौके पर दोस्त की उम्मीद कब हो सकती है और अगर हो भी तो हमें अपनी तरफ से होशियार ही रहना चाहिए। उसका साथी कोई मालूम नहीं पड़ता, चलिए हम लोग आगे चलें।

यद्यपि ये दोनों आदमी बहुत सुस्त हो रहे थे तथापि हिम्मत करके उठ खड़े हुए और म्यान से तलवार निकाले हुए उस तरफ बढ़े जिधर वह आदमी लालटेन लिए आ रहा था। अँधेरा क्षण-क्षण में बढ़ता जाता था और इस आदमी के बदन की हरकत दिखाई नहीं पड़ती थी फिर भी वह तेजी के साथ कदम बढ़ाता हुआ बेखौफ इनके पास आ पहुँचा और बोला-

आदमी : भैया राजा जी, दुश्मनों के घर में भी अकसर दोस्त दिखाई दे जाया करते हैं, देखिए मेरे हाथ में सिवा इस लालटेन के और कोई हर्बा नहीं है, कहिए इस लालटेन का कोई ‘मेघराज’ का आप मुकाबला कर सकते हैं?

भैया राजा : (उत्साह से भरी हुई आवाज में) जब तक ‘मेघराज’ गरजेंगे नहीं तब तक मैं मुकाबिला करने के लिए तैयार हूँ। आओ मेरे प्यारे दोस्त, तुम खूब आये और अच्छे मौके पर आये, शायद इस जगह तुम कुछ मेरी मदद कर सको।

मेघराज : बेशक् मैं आपकी मदद कर सकता हूँ, एक नहीं अगर आपके हजार दुश्मन भी यहाँ आ जाएँ तो मैं अकेला उनसे आपको बचा सकता हूँ।

इतना कहकर मेघराज ने अपना अंग झटकारा और उसके तमाम बदन से खौफनाक चिनगारियाँ निकलने लगीं जिसे देखकर भूतनाथ हैरान हो गया बल्कि डरकर कई कदम पीछे की तरफ हट गया। इसके बाद मेघराज ने सिर्फ भूतनाथ को दिखाने की नीयत से लालटेन ऊँची की जिससे उसके तमाम बदन की अवस्था साफ-साफ दिखाई देने लगी। भूतनाथ ने देखा कि वह बहुत ही बारीक सुनहरी तार से बना हुआ सुन्दर कवच पहिरे हुए हैं जिससे उसका सिर से पैर तक हर एक अंग बखूबी महफूज जान पड़ता है और वह कवच ऐसी खूबी के साथ बना हुआ है कि हाथ-पैर और उँगलियाँ इत्यादि कुछ भी हिलाने से किसी तरह अंडस नहीं मालूम पड़ती। उसी ढंग के बनावट की एक टोपी भी उसके सर पर थी जिसके पिछली तरफ की झालर गरदन के नीचे तक लटक रही थी, जिससे उसकी गरदन पर भी कोई हर्बा काम नहीं कर सकता था। केवल इतना ही नहीं कि उसने इस कवच से अपने बदन को ही रक्षित कर रखा था, वह चाल-ढाल और रंग-ढंग से भी बहादुर मालूम होता था तथा बदन से कसरती और गठीला जान पड़ता था। मेघराज ने लालटेन नीचे करके पुन: भैया राजा से कहा-

मेघराज : मैं इत्तिफाक से ही यहाँ आ पहुँचा हूँ, मुझे इस बात की कुछ भी खबर न थी कि आपके दुश्मन यहाँ आए हुए हैं और उन्होंने आपको फँसाने के लिए यहाँ कोई कार्रवाई कर रखी है अथवा आप यहाँ आकर दुश्मनों से घिर गये हैं मुझे तो ईश्वर ने अकस्मात् ही यहाँ पहुँचा दिया। मैं उतरती समय पहाड़ के ऊपर से आप लोगों की लड़ाई देख रहा था और जल्द-से-जल्द आपके पास पहुँचने की कोशिश कर रहा था परन्तु रास्ता ऐसा खराब है कि हजार कोशिश करने पर भी समय पर आपके पास पहुँच न सका कि आपकी मदद करता, तथापि मैं जानता था कि आपके पास तिलिस्मी तलवार मौजूद है, सिर्फ इतने दुश्मन आपका कुछ नहीं बिगाड़ सकते और इस सबसे मुझे ढाँढस बँधी थी। मैं परसों से इन लोगों को यहाँ आते-जाते देख रहा हूँ मगर कुछ समझ में नहीं आता था, और इस समय भी मैं इन्हीं लोगों को देखने आ रहा था, आपको शायद यह बात मालूम हुई होगी कि यह कार्रवाई आपके दारोगा साहब की है और यह सब आदमी भी उसी के हैं।

भैया राजा : (आश्चर्य से) हाँ! क्या यह सब आदमी दारोगा ही के हैं?

मेघराज : जी हाँ, ये सब उसी शैतान के आदमी हैं, बल्कि ताज्जुब नहीं कि वह खुद भी इन्हीं लोगों में कहीं बेहोश पड़ा हुआ हो। इस लालटेन से सभी की सूरत देखने पर मालूम होगा।

भैया राजा : तो देखना चाहिए वह यहाँ है या नहीं, तुम जानते ही हो कि जब तक मैं इन लोगों को होश में न लाऊँ तब तक ये सब स्वयं चैतन्य नहीं हो सकते।

मेघराज : हाँ, मैं इस बात को और आपकी तिलिस्मी तलवार की तासीर को खूब जानता हूँ!

भैया राजा : अच्छा कुछ यह भी बता सकते हो कि हमारे दुश्मनों में से कोई और भी है या बस इतने ही थे जो इस समय यहाँ जख्मी और बेहोश पड़े हुए हैं।

मेघराज : मैं बिना तहकीकात किए नहीं कह सकता, खैर चलिए अपने बेहोश दुश्मनों की सूरत देखिए, यहाँ अगर कोई होगा भी तो हमारा क्या कर लेगा?

इतना कहकर लालटेन लिए हुए मेघराज आगे बढ़ा और उसके पीछे-पीछे भैया राजा तथा भूतनाथ चलने लगे। भूतनाथ को मेघराज के विषय में बड़ा आश्चर्य था और यह जानने के लिए उसका दिल बहुत ही बेचैन हो रहा था कि यह मेघराज कौन है? इस बात को वह जरूर समझ गया था कि भैया राजा उसे देखते ही पहिचान न सके इसलिए उसने बात के इशारे ही में अपना परिचय दिया और भैया राजा ने भी इशारा ही में परिचय देकर अपने को प्रकट किया। इसमें तो कोई शक नहीं कि यह भैया राजा का दोस्त है मगर कौन है सो मालूम नहीं होता।

लालटेन की रोशनी में भैया राजा ने सभी दुश्मनों की सूरतें देखीं और उनमें से कइयों को पहिचाना भी। उन्हीं के बीच में दारोगा साहब भी पाए गये जो कि भैया राजा की तिलिस्मी तलवार से जख्मी होकर बेहोश हो गये थे।

इस काम से निश्चिन्त होकर तीनों आदमी एक पत्थर की चट्टान पर बैठकर बातचीत करने और सोचने लगे कि अब क्या करना चाहिए। उस समय भूतनाथ ने मौका पाकर मेघराज के विषय में भैया राजा से पूछा कि “यह कौन है? यदि कोई हर्ज न हो तो आप मुझे इनका परिचय दीजिए।” इसके जवाब में भैया राजा ने भूतनाथ से कहा, “मैं लाचार हूँ कि इन (मेघराज) की इच्छा के विरुद्ध इनका परिचय तुम्हें नहीं दे सकता, ये अगर मुनासिब समझेंगे तो अपना परिचय खुद ही तुम्हें देंगे।”

भैया राजा का जवाब पाकर भूतनाथ चुप ही रहा और फिर उसे मेघराज के विषय में कुछ पूछने की हिम्मत न पड़ी।

भैया राजा : (मेघराज से) अब बेहोश दुश्मनों के बारे में आपकी क्या राय होती है? इसके साथ क्य सलूक करना चाहिए?

मेघराज : यह बात आपकी मर्जी पर है, जो आप मुनासिब समझें करें।

भैया राजा : मैं तो यही चाहता हूँ कि इन सभी को कहीं पर कैद कर दूं मगर मेरे पास कोई जगह इस योग्य नहीं हैं।

मेघराज : ठीक है परन्तु यह भी आप जानते हैं कि अपने यहाँ भी मैं इन सभी को नहीं रख सकता अस्तु बेहतर होगा कि इन सभों को कुछ सजा देकर छोड़ दिया जाय, दारोगा के लिए भी इस समय यही मुनासिब होगा।

भैया राजा : आप ठीक कहते हैं, इन सभों की नाक-कान काट कर छोड़ दिया जाय और दारोगा कमबख्त का सिर्फ दाहिना कान थोड़ा-सा काट कर उसे जमानिया सदर बाजार के चौमुहाने पर रख दिया जाय जिसमें वहाँ के सभी आदमी अपने राजा के वजीर को ऐसी हालत में देखकर खुश हों। (भूतनाथ की तरफ देखकर) मैं तो यही मुनासिब समझता हूँ, कहिए आपकी क्या राय है?

भूतनाथ : सजा तो बहुत अच्छी तजवीज की गई है। जबकि आप इस दारोगा का सरे दरबार मुकाबला किया चाहते हैं तो अभी इसे कत्ल करने की जरूरत नहीं है। हुक्म दीजिए तो मैं काम शुरू करूँ?

भैया राजा : हाँ, अब देर करने की जरूरत नहीं है, इन सभों के कान-नाक काट कर दुरुस्त करो। इनके हर्बे भी ले लेने चाहिए।”

भैया राजा का हुक्म पाते ही भूतनाथ ने कार्रवाई शुरू कर दी, तलवार से सभों के नाक-कान काट डाले और अंत में दारोगा का भी थोड़ा-सा दाहिना कान काटने के बाद अपने ऐयारी के बटुए में से स्याही निकाल कर खूब अच्छी तरह उसका मुँह काला किया और कुछ रंग-रोगन भी लगाकर उसकी विचित्र-सी सूरत बना दी, इसके बाद एक घोड़े पर उसे कस-के कमन्द से अच्छी तरह बाँध दिया।

हम ऊपर लिख आए हैं कि इस मैदान में डाकुओं के कई घोड़े भी मौजूद थे, उन्हीं में से एक पर भूतनाथ ने दारोगा को कसा और भैया राजा से कहा, “अब यहाँ से चलते समय इसको अपने साथ ले चलेंगे और रात को मौका देखकर जमानिया के चौमुहाने पर छोड़ देंगे।”

भैया राजा : ठीक है, (मेघराज से) यहाँ आने का रास्ता तो बहुत ही टेढ़ा और खराब है, ताज्जुब नहीं कि लौटती समय हम लोग रास्ता भूल जाएँ। क्या यहाँ के रास्ते को बंद भी कर दिया जा सकता है?

मेघराज : जी नहीं, यह तो एक खुली घाटी है, सिर्फ यहाँ आने का रास्ता पेचीदा और भयानक होने के कारण कोई इस जगह आता नहीं, हाँ इतना जरूर है कि यह घाटी किसी तिलिस्मी घाटी के साथ मिली हुई है और तिलिस्म से भी कुछ संबंध रखती है। शायद दारोगा को यहाँ का हाल मालूम है, आपको नहीं यद्यपि यह सरजमीन आप ही के राज्य में हैं।

भैया राजा : बेशक् यहाँ का हाल मुझे कुछ मालूम नहीं।

मेघराज : मेरा इरादा था कि मैं आज भर के लिए आप लोगों को यहाँ रोक लेता जिससे आपकी थकावट रात-भर आराम करने से अच्छी तरह मिट जाती है और भोजन भी कर लेते, मैं यहाँ बहुत जल्द आप लोगों के खाने-पीने का इंतजाम कर सकता हूँ।

भैया राजा : अगर ऐसा हो सके तो क्या ही अच्छी बात है, मैं भी यही चाहता हूँ कि कुछ भोजन और बेफिक्री के साथ आराम करने का इंतजाम हो जाता और इसके पहिले मैं स्नान भी कर लेता, मगर खौफ यही है कि कहीं और भी दुश्मन लोग यहाँ न आ जाएँ।

मेघराज : अब दुश्मनों के यहाँ आने का आपको खयाल ही क्यों होता है। मेरी मौजूदगी में दो-चार सौ दुश्मन भी आपका कुछ बिगाड़ नहीं सकते और अगर यह समझिए कि और लोग आकर आपके इन दुश्मनों को छुड़ाकर ले जाएँगे तो इनके लिए भी जो कुछ आप किया चाहते थे कर चुके, अब चाहे ये सब खुद-ब-खुद चले जाएँ या इन्हें कोई इनका दोस्त यहाँ आकर ले जाय। काम केवल इतना बाकी है कि दारोगा को जमानिया बाजार के चौमुहाने पर पहुँचा देना, सो इस काम में यदि विघ्न भी पड़ जाय तो आपका कोई हर्ज नहीं है।

भैया राजा : (कुछ सोच कर) अच्छा फिर जैसा आप कहें किया जाय।

मेघराज : बस यही ठीक होगा कि आप दोनों आदमी मेरे डेरे पर चलें और दारोगा को जो घोड़े पर लाद दिया गया है उतारकर एक गुफा में, जो मैं आपको बताऊँगा रख दें, फिर जाती समय पुन: घोड़े पर लाद दिया जाएगा।

इतना कहकर भूतनाथ को साथ ले मेघराज ने दारोगा को घोड़े पर से उतारा और गुफा में जो वहाँ से थोड़ी दूर पर थी रख कर उसका मुँह पत्थर से ढाँक दिया। उसी समय किसी चीज की रोशनी उस मैदान में घूमती हुई दिखाई दी जिसे देखते ही मेघराज चैतन्य हो गया। अपनी लालटेन का खटका उसने दबाया साथ ही एक मोटा शीशा लालटेन के मुँह पर आ गया जिसके कारण रोशनी तेज हो गई और दूर तक जाने लगी। मेघराज भी अपनी लालटेन की रोशनी इस तरह पहाड़ पर दौड़ाने और घुमाने लगा मानो उस पहिली रोशनी का जवाब देता हो। पहिले की आई हुई रोशनी उस सरजमीन पर अजीब ढंग से घुमती थी और मेघराज अपनी लालटेन की रोशनी से उसका जवाब देता था। पास में खड़ा हुआ भूतनाथ बड़े आश्चर्य से यह तमाशे को देख रहा था।

भूतनाथ ने यह तो जरूर समझ लिया कि मेघराज रोशनी का जवाब रोशनी से दे रहा है। वह कोई मेघराज का साथी है जिसने यहाँ लालटेन की रोशनी पहुँचाई है, वह रोशनी के इशारे से बात करता है और मेघराज उसका जवाब देता है, परन्तु हजार अकल दौड़ाने पर भी भूतनाथ को इस बात का पता न लगा कि उन दोनों में रोशनी के इशारे से क्या बातें हो रही हैं या किस तरह के अक्षर बनाए जा रहे हैं। आधे घंटे से ज्यादा देर तक मेघराज इस काम में लगा रहा, इसके बाद वह रोशनी गायब हो गई और मेघराज ने भी लालटेन से रोशनी देना बंद करके अपनी लालटेन का खटका दबाकर फिर पहिले की तरह दुरुस्त कर लिया।

मेघराज : (भैया राजा से) अच्छा तो अब आप दोनों आदमी मेरे पीछे चलें, मैं आपको अपने मकान पर ले चलूँ।

भैया राजा : मैं चलने के लिए तैयार हूँ मगर यह तो बताओ कि इस लालटेन की रोशनी से तुम किस आदमी के साथ बातचीत कर रहे थे और क्या बात की।

मेघराज : अभी इसका जवाब न दूंगा, समय पर स्वयं मालूम हो जाएगा।

भूतनाथ : उस वक्त मालूम हो जाएगा जबकि सुनने के लिए मैं आपके सा न रहूँगा?

मेघराज : (भूतनाथ से) हाँ जी गदाधरसिंह, बेशक् यही बात है। तुम्हारे सामने अपना भेद प्रकट करते डर मालूम होता है। चाहे भैया राजा ने तुम पर भरोसा कर तुम्हें अपना लिया हो मगर अन्य आदमियों की इतनी हिम्मत कहाँ कि तुम पर भरोसा करें।

भूतनाथ : नि:सन्देह मैं अपने कर्मों की बदोलत ऐसा ही जवाब सुनने के योग्य हूँ।

मेघराज : आप खफा न हों, मेरा मतलब यह नहीं कि मैं अपनी बातों से आपको रंज पहुँचाऊँ। आजकल जमाने का ढंग कुछ ऐसा हो रहा है कि किसी को किसी पर भरोसा करने का साहस नहीं होता।

भूतनाथ : है तो ऐसा ही, खैर चलिए आप अपना काम कीजिए।

“मेरे पीछे-पीछे चले आइए” इतना कहकर मेघराज आगे बढ़ा और भैया राजा तथा भूतनाथ उसके पीछे-पीछे रवाना हुए। तमाम मैदान खत्म करने के बाद पहाड़ी के ऊपर चढ़ने की नौबत आई। रात का समय होने से यद्यपि चढ़ने में तकलीफ होती थी। मगर फिर भी लालटेन से सहारा पाते हुए ये दोनों आदमी बराबर चले गये और लगभग पौन-कोस रास्ता चलने के बाद एक गुफा के मुँह पर पहुँचे जिसमें आदमी खड़ा होकर बखूबी जा सकता था। दोनों आदमियों को साथ लिए हुए मेघराज उस गुफा के अन्दर चला। रास्ता बहुत ही पेचीदा और घूम-घुमौआ था तथा चढ़ाई की तरह चला गया था। लगभग चौथाई कोस चले जाने के बाद ये तीनों आदमी बाहर मैदान में निकल और पुन: कुछ दूर चलने के बाद दूसरी गुफा के अन्दर घुसे मगर उसमें ज्यादा दूर जाना न पड़ा, कुछ दो-ढाई सौ कदम जाने के बाद एक बंद दरवाजा मिला जिसे मेघराज ने किसी गुप्त रीति से खोला और अपने दोनों साथियों को अन्दर कर लेने के बाद पुन: दरवाजा बंद कर दिया। ध्यान लगाए रहने पर भी भूतनाथ को दरवाजा खोलने और बंद करने का ढंग मालूम न हो सका।

अब ये तीनों आदमी एक ऐसे कमरे में पहुँचे जिसकी लंबाई बीस गज और चौड़ाई दस गज के करीब होगी। कमरे में सभी तरह का सामान, जिसकी जरूरत आदमी को रोज ही पड़ा करती है, मौजूद था। कमरे के एक तरफ सुन्दर फर्श बिछा हुआ था जिस पर दस-बारह आदमी बखूबी आराम कर सकते थे। सामने की तरफ तीन दरवाजे थे जिनमें से इस समय एक दरवाजा खुला हुआ था जिसकी राह मेघराज अपने दोनों साथियों को कमरे के बाहर ले गया। अब ये तीनों आदमी एक छोटे-से बाग में पहुंचे जो जंगली गुलबूटों और क्यारियों के बदौलत बहुत ही भला मालूम पड़ता था। पूरब तरफ से उदय होकर चन्द्रदेव कुछ ऊँचे हो अपनी चाँदनी फैलाने लग गये थे जिससे उस बाग पर और भी जोबन चढ़ रहा था और दिखाई दे रहा था कि यह पहाड़ी बाग तीन तरफ से ऊँची-ऊँची पहाड़ियों से घिरा हुआ है। उन पहाड़ियों पर कई सुन्दर-सुन्दर मकान और बँगले बने हुए थे जिनमें से चार या पाँच बंगलों के आगे तेज और चाँद का मुकाबला करने वाली सुफेद रोशनी हो रही थी जिससे वहाँ की सरसब्ज जमीन पर दूर-दूर तक की चीजें बहुत साफ दिखाई दे रही थीं और इस बाग पर भी उनका अक्स बहुत अच्छी तरह पड़ रहा था। भूतनाथ ने देखा कि इस बाग में चार-पाँच आदमी भी मौजूद थे जो नमालूम किस काम में व्यग्र और दौड़-धूप कर रहे हैं।

बाग के बीचोंबीच संगमरमर का सुन्दर चबूतरा था और उस पर तरह-तरह की कई कुर्सियाँ रखी हुई थीं। मेघराज उसी चबूतरे पर चला गया और लालटेन रखकर अपने दोनों साथियों को बैठने के लिए कहा।

इस बाग में आने से यद्यपि भूतनाथ और भैया राजा की तबीयत बहुत प्रसन्न हुई मगर थकावट और भी ज्यादा हो गई थी इसीलिए दोनों आदमी आराम कुर्सियों पर बैठ गये और पैर फैलाकर चाँदनी में चारों तरफ की कैफियत देखने लगे। इस समय भूतनाथ के पेट में कुछ अजीब तरह की खिचड़ी पक रही थी और मेघराज का असल हाल जानने के लिए वह बहुत ही बेचैन हो रहा था।

यहाँ पहुँचकर मेघराज ने जफील बुलाई जिसे सुनकर बात-की-बात में तीन आदमी वहाँ आ पहुँचे और इशारा पाकर हर तरह का सामान जुटाने लगे। भैया राजा और भूतनाथ ने स्नान किया, तब संध्योपासना से निवृत्त हो भोजन किया और फिर निश्चिन्त होकर बैठने के बाद आपस में बातचीत करने ले। इस समय रात पहर-भर से ज्यादा जा चुकी थी और चाँदनी भी अच्छी तरह फैल रही थी। सहसा एक आदमी जो हाथ में कोई चीज लिए हुए था इन लोगों के सामने लाया गया जिसे देखकर भूतनाथ चौंक पड़ा और घबराहट तथा खौफ के साथ उसकी तरफ देखने लगा। इस आदमी के हाथ में यद्यपि हथकड़ी न थी मगर पैरों में बेड़ी पड़ी हुई थी।

मेघराज : (भूतनाथ से) कहो गदाधरसिंह इस आदमी को पहिचानते हो?

भूतनाथ : (दुखित ढंग से) बेशक् पहचानता हूँ, इसका आप राजसिंह मेरी जिंदगी का शैतान था, उसी की बदौलत मेरे ऐशो-आराम में फर्क पड़ा तथा मेरे धर्म और ईमान में बट्टा लगा, मेरे दोस्त दयाराम से मेरी जुदाई हुई और आज तक मैं दुर्दशाग्रस्त तरह-तरह की तकलीफों को सहता हुआ मारा फिरता हूँ। इसका नाम ध्यानसिंह है। यदि आपकी आज्ञा हो तो इससे दो-चार बातें करूँ।

मेघराज : हाँ-हाँ, तुम इससे जो चाहे बात कर सकते हो।

भूतनाथ : (ध्यानसिंह से) कहो तुमने तो मुझे विश्वास दिलाया था कि दयाराम जी अभी तक जीते हैं और जमानिया के कमबख्त दारोगा के कब्जे में हैं।

ध्यानसिंह : बेशक् मैंने आपसे ऐसा ही कहा था और अभी तक मैं अपनी राय पर कायम हूँ।

भूतनाथ : मगर तुम बिलकुल झूठे और बेईमान हो। अच्छा हुआ कि तुम इस समय मुझे इस हालत में यहाँ दिखाई दिये। मैं तुमसे मिलने ही वाला था।

ध्यानसिंह : आप जो कुछ समझें और कहें मैं अपनी बात का पूरा सबूत रखता हूँ। अगर मेरी मदद लेकर दयाराम जी को खोजते तो जरूर दारोगा के यहाँ…

भूतनाथ : यह सब फिजूल बातें हैं, मैं तुम पर किसी तरह भी भरोसा नहीं कर सकता। (मेघराज से) क्या इसे आपने गिरफ्तार किया है? इसके गिरफ्तार करने से दयाराम जी का कुछ पता लगा या केवल सजा देने ही के लिए गिरफ्तार किया गया है।

मेघराज : इसका जवाब मैं कुछ भी नहीं दे सकता। यद्यपि मैं भैया राजा की जुबानी सुन चुका हूँ कि तुमने प्रतिज्ञा की है कि भविष्य में अच्छी राह पर चलोगे और इन्होंने तुम पर भरोसा करके विश्वास भी कर लिया है परन्तु हम लोगों का दिल भैया राजा-सा नहीं है, हम लोग बिना जाँच किये किसी पर भरोसा नहीं करते।

मेघराज की बातों से यद्यपि भूतनाथ को क्रोध चढ़ आया मगर वह चुप हो रहा, कुछ भी न बोला। मेघराज ने भैया राजा को वहाँ से उठाया और बाग की एक रविश पर ले जाकर एकांत में खड़ा हो कुछ बातें की और इधर भूतनाथ भी तब तक ध्यानसिंह से कुछ बातें करता रहा। इन सभों में क्या-क्या बातें हुईं इसके लिखने की यहाँ कोई जरूरत नहीं मालूम पड़ती। बातों से छुट्टी पाकर पुन: सब कोई उस चबूतरे पर इकट्ठा हो गए, ध्यानसिंह वहाँ से हटा दिया गया और तब भैया राजा ने मेघराज से कहा, “गदाधरसिंह की जुबानी मैंने सुना है कि दारोगा अब मेरी स्त्री को मार डालने के फिक्र में है इसलिए मैं चाहता हूँ कि वहाँ जाकर उनकी रक्षा करूँ और बन पड़े तो उसे वहाँ से निकाल लाऊँ।”

मेघराज : बेशक् आपको दारोगा से उनकी रक्षा करनी चाहिए और महाराज के सामने ही दारोगा से यह भी पूछना चाहिए कि उसने आपके साथ ऐसा गंदा सलूक क्यों किया? आपका छिपकर कार्रवाई करना मैं पसन्द नहीं करता।

भैया राजा : मेरे और दोस्तों की भी यही राय है अस्तु बेहोश दारोगा को जमानिया सदर बाजार के चौमुहाने पर पहुँचा देने के बाद मैं प्रकट हो जाऊँगा और देखूगा कि भाई साहब के सामने ही मुझसे और दारोगा से क्यों कर निपटती है। अच्छा तो अब मुझे यहाँ से रवाना हो जाना चाहिए। अब हम लोगों की थकावट भी अच्छी तरह मिट गई है और हम लोग बखूबी सफर करने लायक हो गए हैं।

मेघराज : मैं तो यही चाहता था कि रात-भर आप लोग यहाँ आराम करके प्रात:काल सफर करते।

भैया राजा : नहीं, अब मैं जहाँ तक शीघ्र जमानिया पहुँचूँ अच्छा है, तुम मुझे पुन: उसी जगह पहुँचा दो जहाँ से लाए हो!

मेघराज : बहुत खूब, चलिए!

मेघराज ने भैया राजा और भूतनाथ को पुन: उसी जगह पहुँचा दिया जहाँ से लाया था। इन लोगों ने बेहोश दारोगा को गुफा के बाहर निकाला और मिल-जुलकर घोड़ों पर लादने के बाद बागडोर से अच्छी तरह कस दिया। बाकी बेहोश और जख्मी दुश्मनों को उसी जगह छोड़ दारोगा के लिए भूतनाथ और भैया राजा वहाँ से रवाना हुए। मेघराज भी तब तक भैया राजा के साथ गया जब तक कि वे लोग पेचीदे रास्ते को तै करके सीधे रास्ते पर न जा पहुंचे।

मेघराज के विषय में भूतनाथ को बड़ा ही आश्चर्य और खुटका हो गया था। यद्यपि भूतनाथ ने देखा था कि वह अपना चेहरा नकाब से ढॉके हुए नहीं है तथापि यह निश्चय हो गया था कि उसकी सूरत जरूर बदली हुई है। मेघराज को पहिचानने के लिए उसने उद्योग तो जरूर किया था मगर सफल-मनोरथ न हुआ। अब भी उसे यह आशा जरूर थी कि सफर करते हुए भैया राजा से मेघराज का भेद पूछेंगे और मुझे वे जरूर बता देंगे। मगर ऐसा न हुआ अर्थात् भैया राजा ने उसे दिलासा दे दिया मगर मेघराज का असल भेद नहीं बताया, इस बात की मजबूरी दिखाई कि ‘मेघराज ने अपना भेद छिपाने के लिए मुझसे कसम खिला ली है।’

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