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स्त्री का घर-गृहलक्ष्मी की कविता

06:31 PM Apr 25, 2023 IST | Sapna Jha
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बचपन मे सुनती थी
बेटी घर का काम सीख
अपना घर सजाया कर

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वो ख़ुशी ख़ुशी  सब
ज़रूरी काम सीख
घर को सजाने लगी

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त्यौहार पर रसोई
तुलसी का चौरा
कभी बरगद मनोयोग से
मनौतियों के धागों से
सजाने लगी

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अपने घर मे जब
भी कुछ मन से सजाने
का सोचा तो उत्साह
निर्ममतापूर्वक तोड़कर

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कड़े शब्दों में सुना
मन का अपने घर
जाकर करना

मेरा घर?
हाँ बेटियाँ पराई
धरोहर होती हैं
उत्तर में सुन

उसकी आँखे कल्पना
करने लगीं अपने घर की
जहाँ मन के पँख
खोल कर उड़ान भर सकूँगी

एक रात की लंबी
पूजा ने दहलीज़ ऊँची
कर दी उस घर की
जहाँ उसने घर को समझा

प्रतीक्षा को विराम मिला
उसे बरसों बाद प्रतीक्षित
 सपनों का घर मिला
जहाँ उसने सुना

अब यही तुम्हारा घर है
उसने सजाया ,सँवारा
जतन से तिनका तिनका
मजबूती से जमाया
पर नेमप्लेट पर
कभी अपना नाम नहीं पाया

कर्तव्य को मेरा...
पर अधिकार को
पति का ....?
ये दोहरापन
उसे कभी समझ ही नहीं आया

जब उसने परिहास
या क्रोध में सुना कि
छोड़कर चली जा
मेरा घर वापस
अपने पिता के घर

 वो समाज के अस्थिर
व्यवहार पर झूले की तरह
अपने  घर की पहचान
में आन्दोलित होती रही

क्या इसी के लिए
मैं अपने जीवन को
ख़ामोशी से खोती रही

स्त्री जीवन में घर का
एहसास टूटी छत से
कभी कम न रहा
छत छीने जाने का भय
उसके दिमाग मे किसी
अज्ञात भय से कम न रहा

जीवन को खोकर भी
उसके घर की पहचान
कुछ पानी पर लिखे
नाम से ज्यादा न रही

जिसकी प्रत्येक ईंट में
उसकी मनौती और
शुभेच्छा सीमेन्ट की
तरह अडिग हो बही

उसने चारदीवारी में
खोजी अपने लिए
 आधी खुली खिड़की
में थोड़ी सी ताज़ा हवा
कभी मिला जख्म
तो कभी मिली दवा

भले घर की स्त्री कह
बहुत से पँख नोंच
पीठ को बन्जर कर दिया
ज़माने तूने फिर भी
स्त्री को उस का घर न दिया

हो सके तो  उसके पूरे
पारिश्रमिक का बस
छोटा सा अंदाज़ लगाना
यकीन मानो तुम्हे
अपना घर ही लगेगा बेगाना

स्त्री विमर्श चारदीवारी का
मात्र अहसास नहीं है
जहाँ स्त्री नहीं वहाँ
जीवन का एहसास भी नहीं है
हो सके तो वचन खुद से कर लेना
मातृ शक्ति से अपने घर जा मत कहना

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